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Tuesday, October 18, 2011

ओसामा के बाद, अब आगे क्या...

2 मई की सुबह शायद ही कोई भूल सकेगा. हर तरफ बस एक ही चर्चा, एक ही मुद्दा- कौतूहल भरी नजरों से टीवी पर नजरें गड़ाये सभी यही जानना चाहते थे कि ओसामा बिन लादेन मारा गया या नहीं. सुबह 11 बजे के आसपास राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब खुद इस बात की पुष्टि की, तब जाकर सब को यकीन हुआ कि दुनिया में आतंक के सबसे बड़े चेहरे का खात्मा हो चुका है. ये कहना बहुत ही सतही होगा कि विश्वभर में इस खबर के बाद लोगों ने राहत की सांस ली. हां, बहुत ही सतही और शायद बहुत ही छिछला भी. इसलिए नहीं, कि खबर की अहमियत पर कोई भी शक है. बल्कि इसलिए, क्योंकि ओसामा की मौत के बाद दुनिया में आतंक का चेहरा अब कौन होगा, किसका होगा, कैसा होगा और कितना भयावह होगा, इसकी कल्पना कर पाना भी हम सबों के लिए आसान नहीं है.
 अलकायदा को अगर हम एक आंतकी संगठन समझने की गलती करें, तो इससे बड़ी गलती कोई नहीं कर सकता. ये हमारी सोच की संकीर्णता को दर्शायेगा. ओसामा बिन लादेन को यदि हम एक आतंकी माने, तो ये हमारी समझ की कमजोरी जतलायेगा. और उससे भी बड़ी गलती हम तब करेंगे, जब हम ये सोचें, कि अब आतंकवाद से कुछ राहत मिल सकेगी. आतंकवाद और उसके कारणों पर सैकड़ों लोग करोड़ों पेज का शोध कर चुके हैं. हजारों किताबें लिखी जा चुकी हैं और कई सौ लोग ऐसे होंगे, जिन्हें इस मामले पर विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है. लेकिन आतंक के कुछ आकाओं से जो मेरी मुलाकातें हुई हैं, उसके बाद मैं ये मानता हूं, कि कम से कम हम अपने जीवनकाल में, आतंकवाद के खात्मे की बात सोच कर - अपना जी तो बहला सकते हैं – आतंक और अलकायदा को खत्म नहीं कर सकते.
2004 जनवरी की एक रात मैं शायद कभी नहीं भूल सकता. पाकिस्तान के इस्लामाबाद की एक सर्द रात. राजधानी से करीब 70 किलोमीटर दूर, एक आलिशान हवेली के बाहर एके 47 राइफलों से लैस कई सुरक्षा गार्ड और कालीन पर बैठे हम कुछ लोग चाय की चुस्की ले रहे थे. मेरे सामने था भारत के खिलाफ आतंक फैलाने वाली एक तंजीम का आका. बहस हो रही थी, जेहाद पर. अपनी सीमित जानकारी और कुछ किताबों के आधार पर बनायी राय से, मैं अपनी दलीलें पेश कर रहा था. तो मेरी तकरीर को काटने के लिए तंजीम का सुत्रधार और रहनुमा, अपनी सोच और कुरान की आयतों का हवाला देकर, अपनी बात साबित कर रहा था. कभी-कभी ये डर भी सताता कि अगर सामने वाला खफा हुआ तो मेरा नामोनिशान मिटने में वक्त भी नहीं लगेगा. खैर, किस्मत अच्छी थी. चाहे, मेरी इस्लाम की सीमित जानकारी मानिये या फिर हिंदू फल्सफे की अधकचरी पकड़ या फिर बातों को रखने की कला कहिये – मुझे बाइज्जत, बहुत ही लजीज खाना खिलाकर – आधी रात के बाद होटल छोड़वा दिया गया.
सुबह 7 बजे की फ्लाइट पकड़नी थी, इसलिए बिना दिमाग पर जोर डाले, मैंने सामान बांधा और दो घंटे की नींद पकड़ने की कोशिश की. इससे पहले कि अपने कमरे से सुबह निकलता, दो लोग मेरे दरवाजे पर थे. दिमाग सुन्न हो गया. लकवा सा मार गया. लगा कि पाकिस्तान सरकार के लोग होंगे और अब शायद ही वतन वापसी होगी. लेकिन बड़े ही अदब से उनमें से एक ने सलाम किया और कहा कि पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री ने कुरान की दो प्रतियां भेजी हैं. इनमें से एक अरबी से उर्दू के अनुवाद वाली है, और दुसरी अरबी से अंग्रजी वाली. संदेशा ये भिजवाया है, कि जरा गौर से पढ़ें और अगर कुछ और किताबें पढ़ना चाहें, तो एसएमएस करवा दें. साथ ही एक चिठ्ठी थी. लिखा था – “बहस उम्दा थी. हिदुस्तान में शायद सोच की आजादी है, वरना तुम्हारी बातें दिल से नहीं निकली होती. गोया इरादे के पक्के नहीं होते और जरा पढे-लिखे नहीं होते, तो कल रात ही हमारे हो गये होते.” दुआ सलाम के बाद मैं एयरपोर्ट पहुंचा और फिर मुबई पहुंचने से पहले रात की बातों को समेटने लगा.
पिछली रात मेरा सामना कुछ ऐसे लोगों से हुआ था जिन्हें अपने आप पर, अपनी सोच पर, धर्म की अपनी परिभाषा पर और अपनी किसी भी कार्यवाई पर कोई शक नहीं था. इरादे के पक्के ये लोग, सिर्फ अपने मकसद के लिए जी रहे थे. सही और गलत की पारिभाषा इनके लिए मायने नहीं रखती थी. जान लेना या देना इनके लिए बेमायने था. अपने हमधर्म लोगों की तकलीफों का बदला लेने की ख्वाइश, इनके दिलों में धधकती वो आग थी, जिसे बहता खून ही बुझा सकता था. दुनिया की कोई तकरीर, किसी भी मौलाना या मौलवी का फतवा, किसी भी देश की सरकार, विश्व की कोई भी सेना– इन्हें और इनके इरादे को डिगा नहीं सकता था. ये वो लोग थे - जो अपनी संवेदनाओं, अपनी सूझबूझ, अपनी समझ, अपनी अक्ल, अपनी भावनाओं – इन तमाम मानवीय पहलुओं से परे थे. अगर एक लाइन में कहा जाये, तो ये सारे लोग जिंदा लाश थे, जो सिर्फ अपने मकसद के लिये जी रहे थे. और ऐसे लोगों से मानविय संवेदानाओं की उम्‍मीद करना – शायद उम्‍मीद की इंतहा होगी. 
2004 की उस सर्द रात से पहले, मैंने कई मौकों पर आंतकी हमलों की रिपोर्टिंग की थी. दो लड़ाईयों में सैनिकों को मरते और मारते देखा है. दो बार आतंकवादियों और सेना के बीच चल रही फायरिग के बीच फंसा भी हूं– मौत को अपने सामने देखा है- गोलियों की झनझनाहट को अपने कान से कुछ मीलिमीटर दूर महसूस किया है– 10 फीट की दूरी पर फटते हथगोले की भभक और झटके को महसूस किया है. और एक मौके पर सेना के साथ एक बहुत बड़े ऑपरेशन में 9 आतंकवादियों को अपनी आंखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा भी है. लेकिन 2004 जनवरी के बाद मैंने ये मानना बंद कर दिया कि किसी भी सैनिक कार्यवाई, किसी भी प्रलोभन या किसी भी समझदारी/बातचीत से आतंकवाद का खात्मा किया जा सकता है. ना – ऐसा कर पाना नामुमकिन ही समझिये.
आतंकवादियों के लिए आतंकवाद एक फल्सफा है, एक सोच, एक मकसद. धर्म की आड़ लेकर, कुछ लोग इसे खुदा के काम के नाम पर जायज ठहराते हैं- तो कुछ और इसे स्वर्ग जाने का रास्ता मानते हैं. लेकिन अगर इस कहर को रोकना है, तो हमें इसके जड़ में जाना होगा.
एक सोच या फल्सफे को अगर काटना हो, तो उससे ज्यादा ताकतवर सोच पैदा करना जरूरी है. एक लकीर को अगर छोटी करनी हो तो उसे मिटाने में जितनी मेहनत लगेगी, उससे कहीं कम मेहनत में उस लकीर से एक लंबी लकीर खींची जा सकती है, और पहले वाली लकीर खुद-ब-खुद छोटी हो जायेगी. गीता में इसका जिक्र कई बार किया गया है. हमारी आजादी की लड़ाई में दुनिया में नाम कमाने वाले महात्मा गांधी ने भी कुछ ऐसा ही किया था. गुलामी की बेड़ि‍यों और अंग्रेजों के जुल्म को अगर किसी सोच ने तोड़ा तो वो था- अहिंसक विरोध. इस बात पर आज हम कई मत रख सकते हैं, लेकिन इस सच से इनकार नहीं कर सकते.
ठीक इसी तरह, आज जरूरत है एक ऐसे सोच की – एक ऐसे फल्सफे की- जो आतंकवाद की जड़ों को सिरे से झकझोरे और आंतकियों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर करे.
आतंक की जड़ें, नाइंसाफी की बुनियाद पर आधारित हैं. नाइंसाफी चाहे आर्थिक हो, राजनीतिक हो, सामाजिक हो, या फिर तिरस्कार की भावना हो– जो सदियों से एक समाज को सालती आ रही हो. जबतक हम अपने निहीत स्वार्थ से परे नहीं सोचेंगे तबतक हम नाइंसाफी को नहीं मिटा सकते. अब स्वार्थ चाहे व्यक्ति विशेष का हो, समाज का हो, या फिर देश का या अंतराष्ट्रीय जगत का. जब ये बर्दाश्त की सीमा की हदें पार कर जाता है, तो विरोध होता है. लोकतांत्रिक समाज में विरोध के कई जरिये हो सकते हैं. लेकिन एक संकुचित समाज में- एक तानाशाही समाज में- विरोध, हमेशा हिंसक होता है और इस हिंसक विरोध को जायज ठहराने के लिए धर्म से बेहतर कोई ढाल नहीं है.
लिहाजा, जब तक नाइंसाफी पर हम नकेल नहीं कस सकते, हमें ये मान लेना चाहिये कि आतंकवाद पर हम काबू नहीं पा सकते. इसलिए, एक ओसामा बिन लादेन के मारे जाने से – एक अल-कायदा के कमजोर पड़ने से, आतंकवाद कमजोर पड़ जायेगा – ऐसा नहीं होगा. आतंकवाद बढ़ता रहेगा. आतंक का चेहरा बदलेगा, आतंकी बदलेंगे – लेकिन लोग मरते रहेंगे. इतिहास गवाह है – हर सभ्यता में विरोधाभास रहा है. जबतक विरोध जाहीर करने के रास्ते शांतिपूर्ण रहे हैं, सभ्यता चलती रही. जहां दमन बढ़ा, विरोध के स्वर तेज हुये और तबाही मची. मौजूदा हालात में तमाम सभ्यताओं में जारी दमन पर हम रोक नहीं लगा सकते. इसलिए हमें अब इस बात की तैयारी करनी चाहिये कि आतंक का कहर अब कहां बरपेगा और आंतक के भवंर से अपने-आप को बचाने के लिए सिर्फ हमारी सजगता, हमारे काम आ सकती है. सिर्फ और सिर्फ हमारी सजगता.

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